माथे से टपक रही महंगाई की बूंदें
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राकेश पठानिया, धर्मशाला
महंगाई कुछ आंकड़ों का मायाजाल भर नहीं है। यह केवल बटुए या छाती से सटी जेब में ही नहीं दिखती बल्कि माथे पर पसीना बन कर छलकती है और शिराओं में इस कदर बहने लगती है कि आदमी का शारीरिक ही नहीं, सामाजिक मनोविज्ञान भी >>>