माथे से टपक रही महंगाई की बूंदें

राकेश पठानिया, धर्मशाला

महंगाई कुछ आंकड़ों का मायाजाल भर नहीं है। यह केवल बटुए या छाती से सटी जेब में ही नहीं दिखती बल्कि माथे पर पसीना बन कर छलकती है और शिराओं में इस कदर बहने लगती है कि आदमी का शारीरिक ही नहीं, सामाजिक मनोविज्ञान भी हिलने लगता है। सपने संकट में आ जाते हैं, संवेदना सन्न रह जाती है।

महंगाई आसान से शब्दों में क्या है, इसे चाय की रेहड़ी लगाने वाले रेशम सिंह के शब्दों में सुनिए..जो महंगाई के खिलाफ उसका हल्फिया बयान लगता है..

-'क्या बताएं बाबू जी महगाई ने तो नाक में दम कर दिया है। परिवार बस एक वक्त की रोटी के लिए मोहताज होने को है। दाम बढ़ रहे है कमाई कम हो रही है। पहले चाय बेच कर गुजारा चल जाता था। अब कमाई कम हो गई और बढ़े दामों ने तो बिक्री भी कम कर दी है। दूध बढ़ गया, गैस का कमर्शियल सिलेंडर 1345 से 1917 तक पहुंच गया, चीनी 35 रुपये किलो और चाय का कप अब पांच में भी पैसे पूरे नहीं कर रहा। सात रुपये का कप बेचने को मजबूर है। ग्राहक भी अब एक कप चाय मंगवाता है और दो कप खाली लेता। बर्तन धोने का साबुन तो भी महंगा हो गया है अब एक कप चाय के लिए तीन बर्तन धोने पड़ रहे हैं और 15 के बजाए मिल रहे हैं सात रुपये।'

...यह व्यथा चाय की रेहड़ी लगा कर परिवार चलाने वाले रेशम सिंह की है जिसे लगता है कि अब गुजारा करना कठिन है। दो बच्चों की पढ़ाई अब बोझ नजर आने लगी है। पहले दो छोटे बच्चों को मां कुछ स्कूल का काम करवा देती थी लेकिन परिवार की रोटी के लिए अब उसे भी कहीं मेहनत मजदूरी करने को मजबूर होना पड़ रहा है। उसकी कमाई से कुछ घर की रसोई में सहयोग मिलता है और शेष कमाई तो महगाई ही चट कर जा रही है। अब पेट्रोल व रसोई गैस के दाम बढ़ने की संभावना से तो बच्चों को स्कूल भेजने में भी लाचारी ही दिखती है। पेट्रोल के दाम बढ़ेंगे तो बड़े लोगों की कार का खर्च भी बढ़ेगा और व्यापारी लोग तो अपने सामान की कीमत बढ़ा कर पूरा कर लेंगे पर गरीब आदमी बढ़े दामों की भरपाई कहां से करेगा। बाबू जी अगर महंगाई का यही आलम रहा तो बच्चों को पढ़ाई छुड़वा कर कामकाज में लगाना पड़ेगा। उधर, मध्यमवर्गीय परिवार की हालत भी खराब है। सलाद व दाल के तड़के से टमाटर गायब है। दाल के साथ एक हरी सब्जी गुजरे जमाने की बात है। अब भोजन में दाल है तो हरी सब्जी नहीं। बीस हजार मासिक वेतन लेने वाले हरि सिंह का दस हजार रुपया तो बच्चों की शिक्षा में चला जाता है। शेष दस हजार के बजट में ही रसोई व परिवार की दूसरी आवश्यकताएं पूर्ण करनी पड़ती हैं। पहले जब पेट्रोल ने 50 का आंकड़ा पार किया तो उसका कार का सपना चकनाचूर हो गया और अब पेट्रोल के बढ़ते दामों को देखते हुए स्कूटर चलाना भी एक कभी-कभार के सुहाने सफर से अधिक कुछ नहीं।

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