लेने और देने का मनोविज्ञान

यह अकारण नहीं है कि महावीर और बुद्ध भिक्षा मांगते रहे. क्योंकि आप उस आदमी को बर्दाश्त ही नहीं कर सकते जो सिर्फ देता चला जाए.

आप उसके दुश्मन हो जाएंगे. अब यह बहुत उल्टा लगेगा देखने में कि जो आदमी आपको देता ही चला जाए, आप उसके दुश्मन हो जाएंगे. क्योंकि आपको तो देने का वह कोई मौका ही नहीं देता. आपसे वह कुछ मांगता ही नहीं है. इसलिए वे छोटी-मोटी चीजें आपसे मांग लेते हैं. कभी भोजन मांग लिया, कभी कहा कि चीवर नहीं है, कभी ठहरने की जगह नहीं है.

आप बिल्कुल निश्चिंत हो गए. आप बराबर हो गए. हमने एक मकान दे दिया, कि एक दुकान दे दी, कि एक थैली भेंट कर दी. हमने कुछ दिया! उसने क्या दिया, उसने दो बातें कह दीं. इसलिए बुद्ध ने अपने संन्यासी को भिक्षु नाम ही दे दिया कि तू भिक्षु के साथ ही चल, तू भिखारी होकर ही दे सकेगा जो तुझे देना है. ढंग तू रखना मांगने का, और देने का इंतजाम करना.

करुणा की अपनी कठिनाइयां हैं. उस तल पर जीने वाले आदमी की बड़ी मुसीबतें हैं. वह ऐसे लोगों के बीच जी रहा है जो उसकी भाषा नहीं समझ सकते हैं, जो उसे कभी समझ ही नहीं सकते. और इसमें उसको कोई हैरानी नहीं होती. जब आप उसे गलत समझते हैं, तब हैरानी नहीं होती, क्योंकि माना ही जाता है कि यह होगा ही. तो जिन लोगों के जीवन में, पिछले जन्मों में, अगर बहुत ज्यादा बांटने की क्षमता का विकास न हुआ हो, तो उसको ज्ञान हुआ और वे तत्काल तिरोहित हो जाते हैं. दूसरा जन्म उसका नहीं बनता.

इस संबंध में यह भी खयाल ले लेने जैसा है कि बुद्ध और महावीर का सम्राटों के घर में पैदा होना एक और गहरे अर्थ से जुड़ा है. जैनों ने तो स्पष्ट धारणा बना रखी थी कि तीर्थंकर का जन्म सम्राट के घर में ही हो. कथा है कि महावीर का जन्म तो हुआ था ब्राह्मणी के गर्भ में, लेकिन देवताओं ने उस गर्भ को निकाल कर क्षत्रिय के गर्भ में पहुंचाया. क्योंकि तीर्थंकर को सम्राट के घर में ही पैदा होना चाहिए. कारण? सम्राट के द्वार पर पैदा होकर अगर वह भिखारी हो जाएगा तो लोग उसे ज्यादा समझ सकेंगे.

और सम्राट से उसकी सदा लेने की आदत रही है. शायद उस आदत की वजह से, थोड़ा सा जो यह देने आया है, वह भी इससे ले सकेंगे. सम्राट की तरफ सदा ही ऊपर देखने की आदत रही है. यह सड़क पर भीख मांगने भी खड़ा हो जाएगा तो बिल्कुल ही इसे नीचे नहीं देखेंगे, वह पुरानी आदत थोड़ा सहारा देगी. और चूंकि चुनाव उसके हाथ में था, इसलिए इसमें कठिनाई न थी.

साभार, ओशो वर्ल्ड फाउंडेशन, दिल्ली

Leave a Reply