प्राचीन ग्रंथों में मनोविज्ञान

प्राचीन ग्रंथों में मनोविज्ञान

हमारी संस्कृति के प्राचीन साहित्य

विशेषकर ब्राहमाण ग्रंथों (वेदों की प्राचीन गद्यात्मक व्याख्याओं), उपनिषदों एवं गीता में मन का विशद वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। इनमें मन के गुणधर्म, स्वरूप और

कार्र्यो की समीक्षा है :

यजुर्वेद के एक श्लोक के अनुसार, मन त्रिकालदर्शी है। यानी अतीत, वर्तमान और भविष्य तक को यह देख सकता है। मन को मानव हृदय में रहने वाली ज्योति माना गया है।

यजुर्वेद के 38वें अध्याय में मन के सभी महत्वपूर्ण गुणों का उल्लेख है।

अथर्ववेद के एक मंत्र में प्रत्यक्षीकरण

की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार, संवेदनाओं को पांच ज्ञानेंद्रियां ग्रहण करती हैं और मन के द्वारा इनका प्रत्यक्षीकरण होता है।

अथर्ववेद का कथन है कि मन दूसरे

के मन को आकृष्ट करता है, उसे वश में कर लेता है और इच्छानुसार उसे यथास्थान प्रवृत्त करता है। आज मनोवैज्ञानिकों ने मन के द्वारा मेस्मेरिज्म और हिप्नोटिज्म के सफल प्रयोग किए हैं।

ब्राहमण ग्रंथों में मन को प्रजापति या

सृष्टि निर्माता बताया गया है। कहा गया है कि मन की कल्पना से ही यह सारा संसार है। मन जैसा चाहता है, वैसा होता है। अत: उसे अनंत और अपरिमित कहा गया है।

उपनिषदों में मन के विविध गुण-धर्र्मो का वर्णन किया गया है। मन महाशक्ति है, उस पर सबका अधिकार है। अत: उसे सम्राट और परब्रहम कहा गया है। मन प्रकाश और ज्योति रूप है। मन चेतना स्वरूप है।

गीता में मन के निग्रह के लिए अभ्यास और वैराग्य को साधन बताया गया है।

साभार : देव संस्कृति

विश्वविद्यालय, हरिद्वार

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Web Title:Psychology in ancient texts

(Hindi news from Dainik Jagran, newsnational Desk)

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