परिवार व्यवस्था समाप्त करने के षडयन्त्र

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विमल वधावन योगाचाय
एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट

परिवार व्यवस्था समाप्त करने के षडयन्त्र
हमारे
देश में इस वक्त चारो तरफ एक षडयन्त्रकारी वातावरण का निर्माण हो चुका है। विदेशी संस्कृतियाँ यह षडयन्त्र खड़े कर रही हैं। इन षडयन्त्रों से बचने के लिए कानून और अदालतें कभी भी कोई मार्ग निकाल नहीं पायेंगी। इन षडयन्त्रों से बचने का एक ही मार्ग है - शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से उच्च मनोविज्ञान से परिपूर्ण बुध्दि का विकास जिसमें चरित्र और स्वास्थ्य दोनों को जीवन की आधारशिला की तरह स्थापित किया जाये।
आधुनिकता का यह दौर बड़ी तेज गति से कदम बढ़ा रहा है। यह आधुनिकता अन्तत: हमें कहाँ लेकर जायेगी? इसका उद्देश्य क्या है?
जब कभी भी किसी विषय पर आधुनिकता बनाम प्राचीनता की बहस छिड़ती है तो आधुनिकता का तर्क यही सामने आता है कि इन आधुनिक विचारों का लक्ष्य है, व्यक्ति को बन्धनों से मुक्त रखना, चारो तरफ से सुखी और सम्पन्न रखना। तलाक सम्बन्धी नियमों में ढील और दूसरी तरफ लिव-इन सम्बन्धों का आने वाला दौर भी इन्हीं तर्कों को प्रस्तुत करते हुए तथा आधुनिकता की ताल में ताल बजाते हुए अपने कदम अग्रसर करता जा रहा है।
किसी भी समाज में प्यार, सहानुभूति और परस्पर सहयोग से जीवन चलाने का पहला कदम विवाह होता है। विवाह के उपरान्त व्यक्ति बच्चों की उत्पत्ति, शिक्षा, रोजगार और उनके मानसिक विकास पर ध्यान एकाग्र करते-करते अपने जीवन केर् कत्तव्यों का निर्वहन करता रहता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि समाज में परिवारों का निर्माण व्यक्ति की आजीवन सुरक्षा का एक माध्यम बन जाता है। यदि परिवार न हो तो व्यक्ति का जीवन अन्य करोड़ों जीव-जन्तुओं की तरह जंगली सा जीवन हो जायेगा।
परिवार में जब बच्चा यह देखता है कि सभी सदस्य उसके प्रति त्याग भावना से व्यवहार करते हैं, हर सदस्य उसके विकास में सहयोग करने के लिये तैयार रहता है तो इन परिस्थितियों में पोषित व्यक्ति बदले में अपने परिवार को भी पूरी जिम्मेदारीपूर्णर् कत्तव्यों की भेंट चढ़ाने के लिए सदैव तैयार रहता है।
मुस्लिम और ईसाइयत की संस्कृति ने तो इस पारिवारिक सम्बन्धों को सदा ही बड़े हल्केपन से समझा परन्तु हिन्दू विवाह कानून के प्रावधान इस बात का प्रमाण हैं कि वैदिक अनुयायियों में विवाह सम्बन्ध मौलिक रूप से अटूट सम्बन्ध माने गये। स्वतन्त्रता के बाद 1954 में पहली बार हिन्दू विवाहों को लेकर तलाक के प्रावधान जोड़ते हुए हिन्दू विवाह कानून लागू किया गया। इस कानून के बावजूद भी विवाह सम्बन्ध तोड़ने के लिए बहुत कड़ी परिस्थितियों को सिध्द करना आवश्यक था। परन्तु अब केन्द्र सरकार की कैबिनेट ने तलाक के आधार को और अधिक सरल बनाने का प्रस्ताव संसद में प्रस्तुत करने को हरी झण्डी दे दी है। नये प्रस्तावों का सार इस प्रकार है -
 ठ्ठ यदि दोनों पक्षों में सम्बन्ध इतने कटु हो गये हैं कि दोनों का इकट्ठा रहना मुश्किल हो गया हो तो तलाक की याचिका का यह नया आधार होगा। यदि पति ऐसी याचिका प्रस्तुत करेगा तो पत्नी को अधिकार होगा कि वह उसका विरोध करे। परन्तु यदि पत्नी ऐसी याचिका प्रस्तुत करेगी तो पति उसका विरोध भी नहीं कर सकता अर्थात पत्नी की याचिका पर अदालत को एक तरफा तलाक का आदेश देना ही होगा। क्या यह लिंगभेद का नया उदाहरण नहीं होगा?
ठ्ठ परस्पर सहमति के आधार पर पहली प्रस्तुति और दूसरी प्रस्तुति में न्यूनतम 6 माह का अन्तर इसलिए रखा गया था कि सम्भव है इस अवधि में दोनों में पुन: मेल-जोल की सम्भावना बन जाये। परन्तु अब संशोधन प्रस्ताव के अनुसार इस अवधि का प्रावधान समाप्त कर दिया जायेगा। अर्थात जैसे ही प्रथम प्रस्तुति अदालत के समक्ष आई वैसे ही तलाक का आदेश जारी। तलाक के मामले में ऐसी जल्दबाजी उचित प्रतीत नहीं होती।
ठ्ठ यदि तलाक हो जाता है तो पत्नी को पति की कमाई हुई सम्पत्ति में से आधा हिस्सा मिलेगा। क्या यह प्रावधान उन चालाक औरतों के लिए एक आसान हथियार नहीं बन जायेगा जो शादी के बाद बिना कारण बताये तलाक की याचिका प्रस्तुत कर दें, पति उसका विरोध भी नहीं कर सकेगा और उन्हें पति की आधी सम्पत्ति मिल जायेगी?
ठ्ठ आधी सम्पत्ति के अधिकार के अतिरिक्त भरण-पोषण खर्चे का अधिकार भी पत्नी को पहले की तरह ही मिलता रहेगा।
कुल मिलाकर ऐसा लग रहा है कि इन संशोधनों के सहारे सरकार पश्चिमी देशों में चल रहे लिव-इन रिलेशन तथा समझौता विवाहों का प्रचलन बढ़ाना चाहती है। यदि लड़कों के मन में इन संशोधनों का खौफ बैठ गया तो विधिवत शादी करके घर बसाने की हिम्मत कोई नहीं करना चाहेगा। इस प्रकार के संशोधन वैवाहिक सम्बन्धों को तोड़ने में सहायक होंगे और एक प्रकार से खुले सेक्स और वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देंगे।
जहाँ तक लिव-इन सम्बन्धों की बात है, उनके पीछे मुख्य तर्क ही यह दिया जाता है कि भारत में विवाह कानूनों से सम्बन्धित मुकदमेंबाजी का जंजाल इतना गन्दा है कि सामान्य परिस्थितियों में अनेकों वर्ष तक भी इन मुकदमों के फैसले नहीं हो पाते। यदि किसी को जल्दी ऐसी मुकदमेंबाजी से मुक्ति पानी हो तो वधु पक्ष को मुँहमांगी एकमुश्त राशि देकर छुटकारा पाया जा सकता है। सरकार पिछले 50-60 वर्षों में इस मुकदमेंबाजी को सरल बनाने के लिए जैसे-जैसे और कानून बनाती जाती है, वैसे-वैसे पेचीदगियाँ बढ़ती जा रही है। मर्ज बढ़ता ही गया यों-यों दवा की।
इन कानूनी जंजालों से मुक्ति पाने के लिए और क्षणिक रूप से सुखों की प्राप्ति के लिए आधुनिक मस्तिष्क ने लिव-इन सम्बन्धों का नया मार्ग तैयार कर लिया है। इस व्यवस्था में इन्हें किसी कानून का डर नहीं होगा। विवाह या तलाक जैसी व्यवस्थाओं को ये लोग बन्धन मान रहे थे। इन सम्बन्धों में इन कानूनी बन्धनों से मुक्ति प्राप्त होगी। परन्तु आधुनिक दौड़ के ये तर्क उन मनोवैज्ञानिक अवधारणाओं को भूल गये जिनके आधार पर व्यक्ति के जीवन का सारा ढाँचा खड़ा होता है।
आधुनिकवादियों के ये तर्क जीवन के 40 या 50 वर्ष तक की अवस्था में शायद अकाटय बन सकें। परन्तु इस अवस्था के बाद व्यक्ति को समाज से अधिक सहारा परिवार के अन्दर से मिलता है। परन्तु जो व्यक्ति लिव-इन सम्बन्धों के आधार पर अपनी जवानी निकाल देगा, तो बुढ़ापे में उसे विवाह की रस्म कहाँ से प्राप्त होगी?
लिव-इन सम्बन्धों से जो सन्तान उत्पन्न होगी उसे सरकार और समाज कानूनी अधिकार तो शायद दे दे, परन्तु एक मानवीय जीवन के लिए जिस मजबूत मनोविज्ञान की आवश्यकता होती है, वह मनोविज्ञान ऐसे बच्चों को कहाँ से मिलेगा?
आधुनिकवादी विचारधारा केवल आज के सुख और आज की बन्धनमुक्ति के पीछे भाग रही है। इसे समाज के भविष्य का तो दूर अपने व्यक्तिगत भविष्य का ही कोई खतरा नजर नहीं आ रहा है। दूसरी तरफ यह भी साक्षात् महसूस हो रहा है कि आधुनिक कानूनों के निर्माता भी शायद कुछ गम्भीर समाज विरोधी षडयन्त्रों से ग्रसित होकर कार्य कर रहे हैं। हमारे देश में इस वक्त चारो तरफ एक षडयन्त्रकारी वातावरण का निर्माण हो चुका है। विदेशी संस्कृतियाँ यह षडयन्त्र खड़े कर रही हैं। इन षडयन्त्रों से बचने के लिए कानून और अदालतें कभी भी कोई मार्ग निकाल नहीं पायेंगी। इन षडयन्त्रों से बचने का एक ही मार्ग है - शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से उच्च मनोविज्ञान से परिपूर्ण बुध्दि का विकास जिसमें चरित्र और स्वास्थ्य दोनों को जीवन की आधारशिला की तरह स्थापित किया जाये।

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