नीतियों के लिए नुकसानदेह राजनीति

अर्थशास्त्र के प्रोफेसर भले ही इस विषय को तकनीकी और जटिल बनाने की तमाम कोशिश करते हों, लेकिन वास्तव में यह बेहद आसान है. आर्थिक सिद्धांतों को लागू करने में जटिलताओं के बजाए राजनीति और मानव मनोविज्ञान का रोल अहम होता है. भारत की वर्तमान आर्थिक समस्याओं पर विचार करने से पहले इस पृष्ठभूमि को समझना बेहद जरूरी है. भारत की ग्रोथ रेट फिर से 90 के दशक के आखिरी दौर के स्तर यानी 6-7 फीसदी सालाना पर क्यों पहुंच गई है? आर्थिक मोर्चे पर यह मुल्क भारतीय और विदेशी विशेषज्ञों की सलाह पर अमल करने में सफल नहीं रहा है.

यह मुल्क इन सलाहों पर कदम उठाने में क्यों पिछड़ रहा है? अगर इन बातों पर अमल कर लिया जाए तो सालाना विकास के मामले में भारत चीन को पछाड़कर उभरते हुए मुल्कों का आर्थिक सरताज बन सकता है. इन सवालों के जवाब एकमात्र आर्थिक संकेतक में मौजूद हैं और यह है महंगाई दर. मुद्रास्फीति की ऊंची दर कॉरपोरेट निवेश के आड़े आती है और इससे परिवारों के खर्च करने की क्षमता घटती है. दरअसल, कॉरपोरेट फंड की लागत बढ़ाने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक की ब्याज दरों में बढ़ोतरी भी आखिरकार भविष्य में मुद्रास्फीति बढ़ाने का अंदेशा पैदा करती है.

अगर भारत की मुद्रास्फीति दर 15 फीसदी से आगे जाने की दिशा में बढ़ती है (जैसा कारोबारी साल 2009-10 में देखने को मिला था) तो यह मुल्क कभी भी दहाई विकास दर का लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएगा. हालांकि, आप कह सकते हैं कि यह बाहरी कारकों से प्रभावित है. इस दौरान चीन समेत कई मुल्क ऊंची मुद्रास्फीति की समस्या से जूझ रहे थे. ये बातें सही हैं, लेकिन जरा चीन की मुद्रास्फीति पर गौर फरमाइएः चीन की मुद्रास्फीति महज 6 फीसदी से थोड़ा ऊपर थी और अब यह 4 फीसदी से नीचे पहुंच चुकी है. दूसरी तरफ, भारत सोचता है कि इसकी मुद्रास्फीति दर 8 फीसदी से नीचे पहुंच चुकी है और इसके मद्देनजर मौद्रिक नीति में ढील दिए जाने के लिए आरबीआइ पर चौतरफा दबाव डाला जा रहा है. मुद्रास्फीति के आंकड़ों पर गौर फरमाने का मतलब यह है कि उदारीकरण और लचीलेपन के मामले में भारतीय अर्थव्यवस्था चीन के मुकाबले पीछे है.

भारत में मुद्रास्फीति इसलिए ज्‍यादा है, क्योंकि राजनैतिक वजहों से भारतीय रिजर्व बैंक जल्द से जल्द ठोस कदम उठाने में सक्षम नहीं है. इसके अलावा, भारतीय अर्थव्यवस्था का आपूर्ति पक्ष काफी सख्त है. सैद्धांतिक नजरिए से लचीली अर्थव्यवस्था में ऊंची कीमतों से सप्लाई में इजाफा होना चाहिए, भारतीय अर्थव्यवस्था इस कैटेगरी में नहीं शामिल है. भारतीय अर्थव्यवस्था लचीली क्यों नहीं है? सरकार ने उदारीकरण और बाजार को खोलने के मसले पर हथियार डाल दिए हैं. आर्थिक सुधारों से जुड़े नियम, टैक्स सिस्टम में सुधार और बाकी बाधाएं भारत को आकर्षक बाजार बनाने में बाधक हैं और इन मर्जों के इलाज की जरूरत है और इन्हें जल्द दूर किया जाना चाहिए.

रिटेल मसले पर चल रही राजनैतिक खींचतान इस समस्या को बेहतर तरीके से बयां करती है. कोई एक अकेला उदारीकरण सभी चीजों का इलाज नहीं होगा. हालांकि, कीमतों में कमी, बुनियादी ढांचे में निवेश को बढ़ावा और ग्रामीण भारत की आमदनी बढ़ाने की दिशा में किए जा रहे काम को तेज किया जाना मांग पक्ष के लिए फायदेमंद होगा. राजनीति और भ्रष्टाचार ने इन चीजों को काफी नुकसान पहुंचाया है और आखिरकार कानून ने मोबाइल टेलीकॉम लाइसेंस की धज्जियां उड़ा दीं. बिना सिर पैर के फैसले के तहत पहले कपास निर्यात पर पाबंदी लगाई गई और कुछ दिनों के बाद ही यह प्रतिबंध उठा लिया गया. अगर आप एक कंपनी होते (भारतीय या विदेशी कोई भी) तो क्या ऐसे मुल्क में निवेश करना चाहते जहां राजनैतिक, नीतिगत मसलों और मुद्रास्फीति पर भारी अनिश्चितता का आलम हो. जाहिर है बिल्कुल नहीं, जब तक इस माहौल में बुनियादी बदलाव की सूरत न बने.

लेखक 'द इकोनॉमिस्ट' के पूर्व संपादक हैं

मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो देखने के लिए जाएं http://m.aajtak.in पर.

Leave a Reply