कविता में स्त्री मनोविज्ञान के स्पंदन

पुस्तक समीक्षा

मीरा गौतम
सविता सिंह के काव्य-संग्रह ‘स्वप्न समय’ की 61 कविताएं प्लेटो की उस मान्यता को ध्वस्त करती हैं जिसमें वे कहते हैं कि स्त्री भावुक होती है। उसकी भाषा पुरुष भाषा से अलग होती है जिसे उसकी उच्चरित भाषा-ध्वनियों के कंपन में पहचाना जा सकता है। नि:संदेह जैविक दृष्टि से स्त्री कोमल होती है परंतु अनुभूति और भावुकता दोनों  में  अंतर होता है। पुरुष हो या स्त्री अनुभूति और भावुकता दोनों के लिए जरूरी है।
इस दृष्टि से ‘स्वप्न समय’ की कविताएं एकांत के मनोविश्लेषण में आत्मविस्तार की आगामी भूमिका तय करती हैं। सविता सिंह की प्रश्नाकुल मन:स्थितियों को संग्रह की कविताओं में देखा जा सकता है जहां उनका पहला प्रश्न ही यह है कि अंतत: स्वप्र हैं किसके और नींद किसकी है। भीतरी अंतद्र्वंद्वों की गुत्थियां धीमे-धीमे खुलती हैं। असमंजस और विचित्र रहस्यों को बुनती इन कविताओं में स्त्री-मनोविज्ञान के भीतरी स्पन्दनों को पहचाना जा सकता है। कविताएं प्रतीकात्मक हैं और कवयित्री की रचनात्मक क्षमताओं का परिचय देती हैं। ये कविताएं ‘निजी’ सोच से आरम्भ होती हुई जीवन के रहस्यों को खोलने लगती हैं—’दुनिया के कई रहस्यों में से एक/ खुद को समझती हुई/ मैं उसी की हो गयी।’
इस संग्रह की कविताएं मंचीय कविताओं का रतजगा नहीं हैं। नींद और स्वप्न के मिथक को तोड़कर ये कविताएं जीवन की विद्रूपताओं को परिभाषित करती हैं—और यह जीवन भी है जैसे अपना ही हाथ उलटा पड़ा हुआ/ किसी पत्थर के नीचे/ इसे सीधा करते रहने का यत्न ही जैसे सारा जीवन/ हल्के पांव ही चलना श्रेयस्कर है इस धरती के लिए।’
मानव शास्त्र कहता है कि मनुष्य की मूल आदिम भावनाएं कभी नहीं बदलतीं। समय के साथ उसका ढब और चेहरा अवश्य बदल जाता है। जीवन को संचालित करने वाला ‘काम’ प्रेम के संस्पर्श से उदात्त हो जाता है—’मैं हूं सुकून से/ जैसी पहले कभी न थी/ आश्वस्त भी कि प्रेम पहचान लेगा इस नये एकांत को।’
जीवन की समझ को विकसित करने के लिए कविता जब अपनी झिझक को झाड़कर नये समाज का निर्माण कर लेगी तो भाषा भी उसके यकीन को सच में बदलने में देर नहीं लगायेगी। कवयित्री आश्वस्त है और गहन विषाद में डूबकर भी रेतीली सतह पर सच को झूठ की सख्त परत में काबिज होते देखकर पूरी जद्दोजहद के साथ उखाड़ फेंकती है। रचनाकार के लंबे संघर्ष की द्वंद्वमयी यात्रा विराम नहीं लेती। इस अनाम यात्रा में पहले स्वयं को समझना जरूरी है। याद करना और भूलना अंतत: दुख की ही परिणतियां हैं—’एक रेतीली सतह यह जि़ंदगी/ जिस पर सच जैसी झूठ की दूसरी सख्त परत पड़ी है।’
जैसी पंक्तियां रचनाकार की गहन अंतर्दृष्टि की परिचायक हैं। वास्तविकता तो यही है कि जीवन जंगल में बेफिक्र बहने वाली अनाम नदी की यात्रा तो है नहीं जो अदृश्य है।
चेतना के स्तर का इजाफा करने वाली ‘जैसी थी सृष्टि’ कविता में सविता सिंह का दावा है कि उन्होंने ही सबसे पहले गहरी नजरों से आदि मानव द्वारा उकेरे गये भित्ति-चित्रों में संताप और दु:ख के पहले चित्र को पहचाना है। उनका मानना है कि इस सदी के अद्यतन क्षणों में भी सृष्टि वैसी ही है जैसी अपने उद्गम के क्षणों में जीवों के उद्गार और संताप के क्षणों में थी। नृविज्ञान और मानव शास्त्र की गहरी छानबीन किये बिना इस कविता की तह तक जाना असंभव है। मानव विकास के क्रम में सविता की सिंह यह मनोवैज्ञानिक सोच काव्य-प्रक्रिया में संवेदना के नये प्रश्न खड़े कर रही है। ‘अनाम लोक’ कविता का मर्म भाषा-वैविध्य में मूल अर्थ के संकट पर केेंद्रित है कि जब अपनी ही लिखी पंक्तियां रहस्यमयी किताबों में दर्ज होकर अपरिचित लगने लगती हैं। पूरे संग्रह की कविताओं को समझने के लिए मनोविज्ञान, मानवशास्त्र और काव्य-प्रक्रिया के मूल स्रोतों को एकात्म करने की जरूरत है।
०पुस्तक : स्वप्न समय ०रचनाकार : सविता सिंह ०प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि. अंसारी रोड, नयी दिल्ली-2 ०पृष्ठ संख्या : 127 ०मूल्य : रुपये 250.

Leave a Reply