देश के सर्वाधिक जुझारू क्रिकेटरों की गिनती की जाए तो युवराज सिंह बेशक उनमें सबसे आगे-की पंक्ति में होंगे। विडंबना है कि हमारे एक-सबसे जुझारू क्रिकेटर को हमारे समय की एक-सबसे भयावह बीमारी से जूझना पड़ा। क्रिकेट के दीवाने-देश में कैंसर के साथ उनकी लड़ाई जितनी प्रेरणास्पद है,उतनी ही वह कैंसर के बारे में समूचे देश के सामाजिक मनोविज्ञान का भी पता देती है।
कैंसर जैसी भीषण बीमारियों को लेकर सामान्य मनोविज्ञान यही है कि ऐसी बीमारियां ‘हमें’ नहीं ‘दूसरों’ को होती हैं। अवचेतन में हम मानकर चलते हैं कि ऐसा-हमारे साथ नहीं हो सकता। यह शायद आंख चुराने का-ही एक तरीका है। लेकिन सिर्फ तभी तक जब तक कि वह हमें हो न जाए। और इसीलिए जब हम इसके-शिकार होते हैं तो सहसा यकीन नहीं कर पाते कि हमारे साथ ऐसा हो रहा है। आश्चर्य नहीं कि युवराज को इस हकीकत को स्वीकार करने में दो महीने लगे और यह भी आश्चर्यजनक नहीं कि वह इसके नतीजों को लेकर अनिश्चितता से घिर गए। आज के युग में, जहां टेक्नोलॉजी चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत तेज और ऊंची छलांगें लगा रही है, कैंसर-के इलाज में भारी सुधार आया है। आज यह वैसी खतरनाक बीमारी नहीं रह गई है, जैसी कुछ साल-पहले तक मानी जाती थी या जैसे एचआईवी (एड्स) आज है। अगर कैंसर की पहचान जल्दी ही हो सके तो प्रारंभिक अवस्था में इसका उपचार किया जा सकता-है। इस रोग के मामले में जहां काफी प्रगति हुई है, वहीं इससे जुड़े लोगों को अभी काफी चुनौतियों का सामना करना है।
हजार और लाख का फर्क-इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट ने जुलाई 2011 के एक पर्चे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां दी थीं जो-साधारण लोगों के लिए बहुत काम की हो सकती हैं।-देश के अग्रणी चिकित्सा संस्थान एम्स (ऑल इंडिया-इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज) में कैंसर के एक-मरीज के इलाज पर औसत खर्च 1,602 रुपए प्रति सह्रश्वताह आता है। इसमें रेडियोथेरेपी और कीमोथेरेपी सहित अन्य खर्चे शामिल हैं। यहां रेडियोथेरेपी के सात-हफ्तों के कोर्स का खर्च 8,184 रुपए है। एक कैंसर-मरीज पर एम्स में इलाज करवाने का औसत आर्थिक-भार करीब 36,812 रुपए आता है।-इसके विपरीत, जैसा कैंसर विज्ञानी बताते हैं, कैंसर के मरीज को विभिन्न चरणों के इलाज पर-निजी अस्पताल में 10 से 12 लाख रुपए की विशाल-धनराशि खर्च करनी पड़ती है।
औसत मध्यवर्गीय-व्यक्ति कैंसर के इलाज पर इतनी बड़ी रकम कैसे खर्च कर सकता है?-एक साधारण किसान के लिए सरकारी अस्पताल में-भी कैंसर के इलाज का खर्च वहन कर पाना आसान नहीं-है। खासकर तब जब निम्नवर्गीय लोग अपनी रोजमर्रा-की जिंदगी में महंगाई से पहले ही बुरी तरह परेशान हैं।-वहीं निजी अस्पतालों में, जहां आम तौर पर संपन्न लोग-इलाज के लिए जाते हैं, सामान्य मध्यवर्गीय लोगों की-औसत आमदनी के लिहाज से कैंसर के इलाज की फीस-इतनी ज्यादा है कि वे इसे वहन नहीं कर सकते। चाहे-सरकारी अस्पताल हो या निजी, दोनों में ही कैंसर के इलाज का खर्च इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति की कमर तोड़ने-के लिए काफी है। रोग की जटिलताओं को देखते हुए यह-खर्च और भी मुश्किल साबित होता है। कैंसर अपने स्वभाव और प्रकृति से ही बहुत विचित्र-बीमारी है। टेक्नोलॉजी में तमाम सुधारों के बाद भी यह-पता कर पाना बहुत मुश्किल होता है कि इस बीमारी का-स्रोत क्या है। उतना ही मुश्किल यह जानना भी है कि-यह शरीर के भीतर किस तरह फैलेगा। इलाज के दौरान-यह जानना महत्वपूर्ण होता है कि शरीर में यह किस तरह-फैलेगा और इसकी वजह से कौन-सी अन्य जटिलताएं पैदा होंगी। इन्हीं संभावनाओं के आधार पर इलाज की-दशा और दिशा तय होती है। मिसाल के लिए कीमोथेरेपी-की दवाएं संभवत: उतनी खर्चीली न हों जितनी इसके-बाद दी जाने वाली एंटी-बायोटिक्स दवाएं महंगी हो-सकती हैं। कहना न होगा, शरीर के भीतर कैंसर की-वृद्धि के अनुरूप ही इलाज का खर्च बढ़ता जाता है।
असाध्य नहीं रहा अब-भारत सरकार ने राष्ट्रीय कैंसर नियंत्रण कार्यक्रम पहले-पहल 1975-76 में शुरू किया था। इस-कार्यक्रम के तहत इस वक्त देश में 25 क्षेत्रीय कैंसर-रिसर्च सेंटर काम कर रहे हैं। ये रोग के लक्षणों की-पहचान और निदान, चिकित्सा और उपचार के तरीके,-इलाज के बाद की देखभाल और पुनर्वास और शिक्षा-व प्रशिक्षण पर फोकस करते हैं। ये सेंटर देश भर के-मेडिकल कॉलेजों में कैंसर शाखाओं के विकास में भी-मदद करते हैं।-एक जिला केंद्रित कार्यक्रम भी है जो 1991 में प्रारंभ किया गया था और जिसे पांच वर्षो के दौरान 90 लाख रुपए का अनुदान दिया जाता है। कई गैर-सरकारी-संगठन भी काम कर रहे हैं जो सरकारी एजेंसियों के साथ-समन्वय करके मरीजों की सहायता करते हैं। अचानक-कैंसर के हमले से भयभीत और आतंकित होने की-बजाय इन सभी संस्थाओं की मदद ली जा सकती है-और कैंसर का इलाज करवाया जा सकता है।-सरकार के लिए भी यह जरूरी है कि वह कैंसर से-निपटने के लिए चलाए जा रहे इन कार्यक्रमों को ज्यादा-प्रभावी और कारगर बनाए। साथ ही उन्हें ज्यादा विशाल-पैमाने पर चलाए ताकि वे आम आदमी की जानकारी और पहुंच में हों। औसत हिंदुस्तानी घरों में अभी भी स्वास्थ्य-और सेहत पर पर्याह्रश्वत खर्च करने का चलन नहीं है।-
अधिकांश परिवारों की वित्तीय हालत और दूसरी जरूरतें-आम तौर पर उन्हें इसकी इजाजत भी नहीं देतीं। कैंसर-जैसे रोग के बारे में आधी-अधूरी जानकारियां हालात को और जटिल बना देती हैं। ऐसे में अपने शरीर में कैंसर-के होने का पता चलते ही साधारण आदमी की पहली-प्रतिक्रिया यही होती है कि वह भयभीत और आतंकित-हो जाता है। दुयरेग से हमारा समाज भी इस मनोवैज्ञानिक-भय से लड़ने में कैंसर के मरीज की कोई खास मदद नहीं करता।-आज भी अशिक्षित लोगों की तो बात छोड़ दें, पढ़े लिखे समाज के बड़े हिस्से में भी कैंसर का मतलब-है सब कुछ खत्म। ऐसा है नहीं। चिकित्सा विज्ञान की-तरक्की की बदौलत अब कैंसर भी किसी भी अन्य बीमारी की तरह ही है। अगर समय से इसकी पहचान-की जा सके और फिर सही उपचार किया जाए तो-सफलतापूर्वक इसका निदान किया जा सकता है।
यह-बात हमारा समाज जितनी जल्दी-और जितनी अच्छी तरह समझ लेगा, कैंसर के आतंक से मुक्त-होने में उतनी ही ज्यादा मदद-मिलेगी।-यह समझना इसलिए भी-जरूरी है क्योंकि तभी हम कैंसर-के मरीजों की अनदेखी या उन्हें-बहिष्कृत करने की मानसिकता से-भी मुक्त हो सकेंगे। हकीकत यह-है कि जरूरत उन्हें गले लगाने की-है। कैंसर मरीज के मनोवैज्ञानिक पहलू चिकित्सकीय पहलुओं से-ज्यादा अहम हैं। इसीलिए व्यापक-समाज उनके निदान में बहुत जरूरी और मूल्यवान-भूमिका अदा कर सकता है। अगर समाज कैंसर से-प्रभावित लोगों को गले लगाए, उनके मन में उठने वाली-आशंकाओं को दूर करे और उन्हें आश्वस्त करे कि अब-कैंसर का इलाज हो सकता है, तो इससे निश्चय ही उन्हें-बड़ी मदद मिलेगी।-हमारे देश के विभिन्न समाजों में ऐसी परिस्थिति आने-पर परिवार अक्सर बहुत अहम भूमिका निभाता है।
किसी परिजन या रिश्तेदार के किसी परेशानी में होने पर की-सूचना मिलने पर हम आम तौर पर सहज ही आगे आते-और उसकी मदद करते हैं। किसी को कैंसर जैसी बीमारी-होने पर भी यह प्रवृति देखी जाती है।-लेकिन यही पारिवारिक सौजन्य व्यापक सामाजिक-स्तर पर खासकर शहरी जीवन में दिखाई नहीं देता। हम-दूसरों के साथ ऐसी ही उदारता से पेश नहीं आते। कई-बार मन के भीतर उठने वाली आशंकाएं (जो कैंसर के-बारे में आधी-अधूरी जानकारियों के कारण होती हैं)-हमें आगे बढ़ने से रोकती हैं और हम उनके प्रति अपने व्यवहार और रवैये से कैंसर के मरीज को मुख्यधारा की-गतिविधियों से बाहर जाने के लिए अभिशह्रश्वत कर देते हैं।-20 लाख की खातिर-समाज में हर व्यक्ति के लिए समझना जरूरी है कि-कैंसर से प्रभावित मरीजों को इस रोग से उबारने में उनकी-भी उतनी ही अहम भूमिका है जितनी डॉक्टरों की। बल्कि-मैं तो कहूंगा कि मरीज का मनोबल बढ़ाने में लोगों की-गर्मजोशी और आत्मीयता का डॉक्टरों के उपचार से भी-ज्यादा बड़ा योगदान हो सकता है।
कैंसर के आतंक से मुक्ति में आने वाले दिनों में दो बातों की बड़ी भूमिका होगी। एक यह कि हम इस बीमारी-से प्रभावित गरीबों के लिए अधिकाधिक सरकारी आर्थिक-सहायता कैसे मुहैया करवा सकते हैं। दूसरा यह कि हम-व्यापक समाज को इस रोग की जटिलताओं को समझने-में किस तरह समर्थ बनाते हैं। इससे पहले हम इतना-तो कर ही सकते हैं कि अपनी मानसिक जकड़बंदी से-मुक्त हों और बगैर किसी संकोच या आशंका के कैंसर-के मरीजों को गले लगाकर उनकी जिंदगी और मनोदशा-में बदलाव लाएं।-सिर्फ युवराज सिंह की ही बात नहीं है। उन 20 लाख लोगों की बात है जो हमारे देश में कैंसर से लड़ रहे हैं।