मेरी मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ

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पारस दासोत का लेखन पूर्णरूपेण लघुकथा केन्दि्रत है। उन्होंने लगभग १७ सौ लघुकथाओं का सृजन किया है। संभवतः वे देश के पहले ऐसे लघुकथाकार हैं, गणना की दृष्टि से जिन्होंने इतनी लघुकथाएँ लिखी हैं।
सन् १९८६ से लेकर सन् २०१३ तक उनके १४ एकल लघुकथा संग्रह प्रकाशित हैं। उनमें ’’एक और अभिमन्यु‘‘ १९८६, ’’प्रयोग‘‘ १९८८, ’’परसु‘‘ १९८९, ’’कदम बढाती चूडयाँ‘‘ १९९०, ’’मेरी मानवेत्तर लघुकथाएँ‘‘ २०१० और ’’मेरी किन्नर केन्दि्रत लघुकथाएँ‘‘ २०१३ चर्चित हैं। सन् १९९८ में छपे उनके लघुकथा संग्रह ’’सीटीवाला रबड का गुड्डा‘‘ का पाकिस्तान में उर्दू अनुवाद प्रकाशित हुआ है। उल्लेख्य है कि उनके लघुकथा साहित्य पर देश में पहली दफा पी.एचडी. जैसा विशद शोधकार्य हुआ है।
उनका सद्यः प्रकाशित लघुकथा संग्रह-’’मेरी मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ‘‘ समीक्ष्य है। संग्रह में मानव और मानवेतर मनोविज्ञान से जुडी उनकी १७९ लघुकथाएँ संगृहीत हैं। ये लघुकथाएँ मन को विभिन्न कोनों से देखती-जाँचती-परखती हैं।
स्वयं लेखक का मनोविज्ञान जानने के लिये पुस्तक की अंतिम लघुकथा ’’ईश्वर का मनोदर्शन‘‘ पर अँगुली रखी जाये। यह लघुकथा चंद पंक्तियों की है। इनमें से यह पंक्ति-’’मेरे प्रिय पाठकों, आप मुझे नास्तिक कहे या आस्तिक।‘‘ बेवजह है। अंतिम यह वाक्य कि ’’मैंने ईश्वर को छोड दिया‘‘ लेखक में ईश्वरवादी भाव निहित है। यहाँ दो तरह की स्वीकारोक्तियाँ हैं। पहली यह कि अगर ’मैं‘ ईश्वर को नहीं छोडता तो वह अईश्वरीय होता। ईश्वर को मुक्त करते ही वह ईश्वरवादी हो जाता है। यहाँ ईश्वर जैसी अज्ञात सत्ता का भय लेखक का मनोविज्ञान है।
’’मनोवैज्ञानिक मंत्र‘‘ लघुकथा में जीव मनोविज्ञान का प्रतिपादन है। यहाँ परिलक्षित होता है कि बिल्ली जैसा माँसाहारी जीव, जिसका चूहा सबसे पौष्टिक और स्वादु आहार होता है, चूहा द्वारा ’मौसी‘ कहकर बिल्ली की खूबसूरती का बखान करने पर बिल्ली ध्येयच्युत हो जाती है और वह अपने प्रशंसक चूहे को छोडकर अन्य चूहे का शिकार करने के लिये दौड पडती है।
मनोविज्ञान की भी एक रवायत होती है। जो स्वाभाविक संस्कार में परिणित हो जाती है। ’’घी चुपडी रोटी‘‘ इसी मनोविज्ञान का उद्घाटन करती है। पुत्रवधू को जैसे ही यह मालूम होता है कि उसके बुढऊ ससुर की पेंशन रिलीज हो गई है तो वह उनकी थाली में घी चुपडी रोटी परोसने लग जाती है। ’’महाभारत‘‘ लघुकथा में लघुकथाकार कुरुक्षेत्र को पेट की संज्ञा देता है तो भूख को ’’महाभारत‘‘ बताता है। जब भूख से बेहोश व्यक्ति पर कोई पानी के छींटे मारता है तो उसे होश आ जाता है। वह उससे कहता है-’’मैं बेहोश नहीं था। मैं तो अपने सत्य को कुरुक्षेत्र में ढूँढ रहा था।‘‘ यहाँ आकर उस भूख के मायने बदल जाते हैं जो कुरुक्षेत्र के पेट की भूख थी। यानी सत्ता और मानव लहू की पिपासा।
’’खिलौना‘‘ के बहाने मालिक और नौकर के अन्तर्मन की जडों की सलीके से थाह ली गई है। जहाँ नौकर के लिये लौहे का एक खिलौना मनोरंजन का माध्यम है, वहीं मालिक के लिये नौकर रंजन का जरिया है। खिलौने में चाबी भरने के बाद नौकर जब उसे फर्श पर रख देता है तो वह नाचने लगता है। नौकर हँसता है। और जब नौकर खुद खिलौने के साथ नृत्यलीन हो जाता है तो उसका बॉस हँसने लगता है। यहाँ मालिक के लिये नौकर जैसा मानव धातु के खिलौने के सदृश है। लघुकथा ऊँच-नीच के भूगोल को सहजता से समझाती है।
’’निवेदन‘‘ बाल मनोविज्ञान पर केन्दि्रत लघुकथा है। झोपडी में रहने वाला एक बालक घर आये मेहमान से बार-बार यह निवेदन करता है कि अंकल जी आप जल्दी-जल्दी आया करें। बालक के यूँ लगातार आग्रह करते रहने पर अतिथि का जिज्ञासु मन पूछ बैठता है-’’क्यों बेटे?‘‘ लडका कहता है-’’मुझे रोटी-साग के साथ खाना अच्छा लगता है।‘‘ यहाँ गरीबी का मनोविज्ञान है, एक विद्रूप भी। झोपडी में तब ही सब्जी का साधन जुट पाता है, जब कोई मेहमान आता है। बालक के आग्रह में उसका स्वादु मन हावी है।
इसी प्रकार ’’खुश्बू‘‘, ’’मोती‘‘, ’’चूहे की डायरी का अंतिम पृष्ठ‘‘, ’’सृजन एक कलाकृति का‘‘, ’’कमला किन्नर‘‘, ’’मदारी का खेल‘‘, ’’ऐसी बात नहीं होती‘‘, जैसी लघुकथाएँ विभिन्न कोणों से न केवल इंसान बल्कि जीव-जंतुओं, पेड-पौधों, वायु-पानी, अवनि-अंबर तक अंतस का मनोविश्लेषण करती हैं। श्री पारस दासोत की लघुकथाएँ फ हुए उस फल की तरह है, मीठापन जिसकी प्रवृत्ति है।
रामदीन का चिराग
’’रामदीन का चिराग‘‘ गोविंद शर्मा का सद्यः प्रकाशित लघुकथा/व्यंग्य संग्रह है। शर्मा को व्यंग्य और बाल साहित्य में महारथ हासिल है। इन दोनों विधाओं में उनकी ३० से अधिक पुस्तकें पाठकों तक पहुँच चुकी हैं। आलोच्य कृति ’’रामदीन का चिराग‘‘ में उनकी ९१ लघु व्यंग्य रचनाएँ हैं। यह अलग बात है कि दो टिप्पणीकारों डॉ. रामकुमार घोटड और डॉ. रामनिवास मानव ने इन रचनाओं को लघुकथा ही ट्रीट किया है।
कहना होगा कि आकलन के मद्देनजर ये लघुकथाएँ लघुकथा विधा की कसौटी से छिटक कर व्यंग्य की ओर चली जाती हैं। यहाँ व्यंग्य की चिकोटियाँ भर हैं, लघुकथा का गांभीर्य दृष्टिगोचर नहीं होता है। कुछ तो व्यंग्य के अनुच्छेद मात्र हैं। पुस्तक के मुख्य पृष्ठ पर जो कार्टून है, वह भी इन रचनाओं को व्यंग्य ही दर्शाता है। लेखक का लघुकथा के लिये मुग्ध होना भी समझ से परे है। संग्रह को लघुकथा संग्रह की बजाय लघु व्यंग्य संग्रह के रूप में विवेचन करना ज्यादा समीचीन जान पडता है। इसे इसके मूल स्वरूप में ही प्रकाशित करवाया जाना अपेक्षित था, क्योंकि ये रचनाएँ कविता से ’’हाइकु‘‘ की भाँति लघु व्यंग्य के नये स्वरूप में नव्यतम विधा के स्थापना की ओर जाती तो बेहतर प्रतीत होता।
अतः सुधी पाठकों की अनुमति और लेखक के अन्यथा नहीं लेने की सहमति से यहाँ इन रचनाओं की लघु व्यंग्य की दृष्टि से समीक्षा की जा रही है। गोया इनके कथानक, भाषा-शैली, पात्र, वाक्यों की संरचना और शब्दों की उपयुक्तता भी यही कहते हैं।
संग्रह की आधी से ज्यादा व्यंग्य रचनाएँ राजनीति की पैंतरेबाजी पर हैं। इस पहलू को नजरअंदाज कर अन्य व्यंग्य रचनाओं को परखा जा रहा है।
’’गौ पूजन‘‘ व्यक्ति के दोहरे चरित्र पर करारा व्यंग्य है। वह पुण्य करें और बेकार के झंझट उसके सामने खडे नहीं हों। गौपूजन के दिन एक गृहिणी अपने हाथ में डण्डा इसलिये रखती है कि गायें प्रसाद खाने के बाद दो-चार डण्डे खाये बगैर दरवाजे के सामने से हटती ही नहीं हैं।
’’अभियान‘‘ में टी.बी. जैसी घातक बीमारी का एक अस्पताल में इसलिये इलाज नहीं किया जाता है कि यह बहुत पुरानी बीमारी है, क्योंकि इन दिनों स्वाइन फ्लू की बीमारी फैली हुई है जो नई है। टी.बी. के मरीज के परिजनों को चिकित्साकर्मी साफ-साफ मना कर देते हैं कि टी.बी. के मरीज को तो ले जाओ, अगर कोई स्वाइन फ्लू का मरीज मिल जाये तो उसे जरूर ले आना, इस बीमारी के उन्मूलन के लिये अभियान चलाया जा रहा है।
’’कडक‘‘ व्यंग्य में सरकारी आदेश की क्रियान्विति में जब समूचे नगरपालिका क्षेत्र में पोलिथीन की थैलियाँ दिखाई नहीं देती हैं तो नगरपालिका का नया अधिकारी अपना कडकपन दिखाने का प्रदर्शन करने के लिये एक नया उपाय ईजाद करता है। वह पोलिथीन की थैलियों के उपयोग से अनजान हो जाता है और एक दिन अकस्मात पूरे शहर में पोलिथीन थैलियों का उपयोग बंद करवा कर अपना कडकपन दिखाना चाहता है।
श्री शर्मा की एक और रचना है ’’प्रदूषण।‘‘ यहाँ दो पहिया वाहनों से हो रहे प्रदूषण को रोकने के लिये एक हजार मोटर साइकिलों की रैली शहर की मुख्य सडकों पर निकाली जाती है। ’’भुलक्कड‘‘ में कोई दोष, अदोष या संदेश निहित नहीं है। शोक अथवा शौक के आँसुओं से दोनों आँखें नम होती हैं। यह मानसिक स्थिति की स्वाभाविक क्रिया है।
श्री गोविंद शर्मा की ’’दूरदर्शी‘‘, ’’फायर प्रूफ साडी‘‘, ’’दो बूँदें‘‘, ’’नींव का पत्थर‘‘, ’’तस्करी‘‘, ’’आदमी की बात‘‘, ’’अपनी-अपनी मिजाजपुर्सी‘‘ अन्य व्यंग्य रचनाएँ हैं जो अपनी ओर ध्यान खींचती हैं।
मन की लघुकथाएँ
रचना गौड ’भारती‘ नवोदित लघुकथाकार है। उनके सद्यः प्रकाशित लघुकथा संग्रह ’’मन की लघुकथाएँ‘‘ में कुल ८३ लघुकथाएँ संगृहीत है। ’’गंगाजल‘‘ लघुकथा पाप और पुण्य के द्वंद्व मैं झूलती है। हरिद्वार में हर की पोडी पर संध्या समय काफी भीड है। इधर आरती होती है और उधर श्रद्धालुओं की जेबें साफ होती हैं। यह वह समय होता है जब धर्मान्धता परवाज ले रही होती है। वहाँ हर भक्त की मोक्ष की कामना जेबकतरों के लिये सुविधाजनक हो जाती है। एक श्रद्धालु की जेब साफ हो जाने पर उसके पास जरिकेन खरीदने तक के पैसे नहीं है, जिसमें गंगाजल भरकर वह अपने घर ले जा सके। किराया-भाडा तो बडी बात ठहरी। लघुकथा में यहाँ व्यंग्य के साथ-साथ पाखण्ड भी उजागर है।
’’फैशन‘‘ लघुकथा प्रथम पुरुष में लिखी गई है। जो सिनेमाघर में देखी गई एक फिल्म की थीम है। उसमें डायलॉग है-’’लडकियों को आजादी मिलनी चाहिये यह उनका हक है।‘‘
’’मजबूरी‘‘ अमरनाथ हादसे पर है। जिसकी थीम अखबारी कतरन है। अमरनाथ में बादल फटने के कारण असंख्य यात्री काल-कवलित हो गये। परिजनों और अन्य मानवीय लोगों ने लाशों पर कफन ओढा दिया। लेकिन जब बर्फानी हवाएँ चलती हैं तो वे ही लोग लाशों पर पडे कफन उठा-उठा खुद ओढकर अपने तन ढँकने लगते हैं। सही मायने में लघुकथा यहीं समाप्त हो जाती है। आगे की पंक्तियाँ व्यर्थ है। व्यभिचार लघुकथा नई पीढी में पनप रहे दैहिक शौक को स्पर्श करती है। यहाँ खुलापन बाजारूपन है। हर गृहिणी की अपनी व्यथा होती है। ’’शिक्षा‘‘ एक गृहिणी की मूकाभिव्यक्ति की व्यथा कथा है।
’’आदर्शहीन संतान‘‘ में वाक्य विन्यास की ओर लेखिका ने ध्यान नहीं दिया है। दरअसल पाठक किसी रचना को न केवल अपने रंजन के लिये पढता है बल्कि ज्ञानार्जन के लिये भी उसका रसास्वादन करता है। रचना में रस अलंकार का द्योतक है। जो रचना शब्द संपदा, वाक्य विन्यास तथा गुंफित अनुच्छेदों से अलंकृत नहीं होती, उससे पाठक ऊब जाता है। यहाँ एक वाक्य सुधी पाठक को बेहद चुभता है। ’’उसके पिता अनपढ गाँव के खेती करने वाले किसान थे।‘‘
यह ’’अनपढ‘‘ शब्द की अनुपयुक्तता के कारण वाक्य रचना भंजित और अव्यवस्थित हो गई है। यह उसी गाँव पर केन्दि्रत है जहाँ का लडका अन्य लडकों के साथ उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहा है। वाक्य संरचना में यह होना था-’’उसके पिता गाँव के खेती करने वाले अनपढ किसान थे।‘‘
हाँ, रचना गौड ’भारती‘ की लघुकथाओं से गुजरते यह सहज ही आभास होता है कि वे एक संभावनायुक्त लेखिका हैं।
हर लेखक यह अपेक्षा करता है कि अधिक से अधिक पाठक उसकी रचना को पढें और बडाई करें लेकिन वह सुधी पाठकों की इस भावना को क्यों नहीं भाँपता कि स्वयं लेखक को अपनी रचना को प्रकाशित करने से पूर्व चार दृष्टियों लेखक-संपादक-आलोचक-पाठक से पढना चाहिये क्योंकि लिखा हुआ शब्द लेखक का अपना होता है और छपा हुआ शब्द सार्वजनिक हो जाता है।
’भारती‘ की ’’कृतज्ञता‘‘, ’’संकल्प‘‘, ’’अहम्‘‘, ’’जागृति‘‘, ’’समाज सुधार‘‘, ’’टूटा विश्वास‘‘ और ’’भिखारी का गैटअप‘‘ लघुकथाएँ अपने-अपने आयाम और अन्तर्द्वन्द्व के साथ समाज की विसंगतियों और धर्म के आडम्बर को दर्शाती है।
एक चेहरा
युवा कवि राजेश प्रभाकर की सद्यः प्रकाशित काव्य कृति ’’एक चेहरा‘‘ को पढते पाठक के अंतकरण में एक जिज्ञासा पनपती है कि नारी के विभिन्न भाव प्रवण और रूप वैभिन्य को लेकर एक ही जिल्द में कोई अनुपम कृति हो सकती है। यशोधरा जैसे खण्ड काव्यों से इतर अगर चर्चा की जाये तो ’’एक चेहरा‘‘ काव्य संग्रह इस मायने में काबिले तारीफ है।
पुरुष प्रधानता नारी को जहाँ माँ, भगिनी, भार्या, पुत्री या प्रेयसी के रूप में देखती है वही राजेश के इस संग्रह में वह कृपालु, ममतालु, दुःखों की सागर, सुखों की गागर, सृष्टि की रचयिता, संवेदनाओं की प्रतिमूर्ति, जागृति की मिसाल और जागरूकता की मशाल के रूप में आलोकित है। कविताओं में ये भाव इतनी सहजता के साथ प्रतिपादित होते हैं कि काव्य रस की धारा सी प्रवाहित होती नजर आती है।
संग्रह की ’माँ‘ कविता में भावुकता का पुट अनुपम है-
मेरे शुभचिंतन में,
मेरी माँ की साँसें चलतीं
मेरे जीवन दीप की बाती
बनकर हरदम जलती रहती।।
इन कविताओं में परिवेशगत प्रस्फुटन भी है और समय सापेक्षता की महीन समझ भी है। यहाँ हर कविता नारी की सहज प्रकृति को बूझने के लिए उद्यत है। कवि की कल्पनाशीलता पाठक मन को उद्वेलित करने के साथ इस हेतु स्वीकार्य है कि ये कविताएँ छंद और अंलकारयुक्त हैं। साथ-साथ बिंब और प्रतीकों का सुंदर समन्वय भी है।
’’रचनाकार‘‘ में बानगी है-
सूक्ष्म से सूक्ष्म बिंदु पर
सहज-सहज आकार दिया
तेरी रचना में ही उसने
सृष्टि का रचनाकार दिया।।
’’प्रसवी‘‘ कविता में कवि अपने अन्तर्मन में उपजे भय को थामें एक बिंब प्रस्तुत करता है-
मर कर जैसे,
जीवित हुई।
प्रसव की नव,
निर्मित हुई।।
छंदयुक्त होने के कारण इन कविताओं का अपना शिल्प सौष्ठव है। काव्य की लय स्फूर्त है। ’’जीवनधारा‘‘ कविता में कवि का काव्य कौशल फूटकर प्रकट हुआ है-
आँधी, तूफाँ, झंझावत,
तुम घोर तिमिर में उजियारा।
बह न सकेगी, थम न जाएगी,
तुम हो जीवन की धारा।।
पन्नाधाय त्याग और स्वामीभक्ति की प्रतिमूर्ति है। पन्नाधाय के उस त्याग पर कवि का मन उद्वेलित हो भर-भर आता है-
अपना अंश गँवाया तूने,
ममता की सूनी छाती
संयम बना निराला।
ममता के बहुते दीपक ने,
नयनों में भर दी ज्वाला।
धधक रही हृदय में अग्नि,
अग्निपथ पर उसको पाला।।
नारी को क्या उपमा दें, राजेश को इसके लिये शब्द नहीं मिल पा रहे हैं-
नारी तेरी उपमा के मैं शब्द ढूँढने निकला हूँ।
सुशील-स्नेहा-एकात्मक शब्द ढूँढने निकला हूँ।
’’तेरे बिन‘‘ कविता नारी की सर्वव्यापकता को दर्शाती है। वह नारी ही है जो सब जगह विराजमान है। यानी उसके बिन समूचा संसार सूना है-
हर घर के आँगन में तुम हो।
अल्हड के सावन में तुम हो।।
सजनी वन सावन में तुम हो।
जीवन के दामन में तुम हो।।
आलोचक डॉ. शिवजात सिंह ने ’’एक चेहरा‘‘ की भूमिका लिखते बडी सटीक टिप्पणी की है। वे लिखते हैं-’’राजेश प्रभाकर में अद्भुत काल्पनिक क्षमता है। उनके काव्य में अमूर्त भाव शब्द चित्रबद्ध हो साकार रूप में नर्तन करने लगते हैं, उन्होंने नारी हृदय में उठने वाले तूफान को विश्वास और प्यार को, हर उस भाव को, कलमबद्ध किया है जो नारी और काव्य को गरिमामय ऊँचाइयों तक ले जाएँ।‘‘
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि राजेश की कलम ने नारी देह के चित्रण की अपेक्षा उनके भावों का चित्रांकन किया है। यह ऐसा चित्रांकन है जो नारी की ममता उसके प्यार, दुलार, श्ाृंगार और अन्तर्मन के सौन्दर्य को नवाकार की कसौटी पर लाता है। नारी पर लिखी गई ये कविताएँ पठनीय और संग्रहणीय हैं। यह कविता संग्रह उन संवेदनशील पाठकों के लिये और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जो नारी को भोग्या नहीं, सृष्टि का सृजनहार मानते हैं।

स ’’मेरी मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ‘‘, पारस दासोत, अंशुल प्रकाशन, लालकोठी, जयपुर पृष्ठ १९२/मूल्य ४०० रुपये मात्र।
स ’’रामदीन का चिराग‘‘, गोविन्द शर्मा, अपोलो प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ १३२/मूल्य २५०
स ’’मन की लघुकथाएँ‘‘, लघुकथा संग्रह, रचना गौड ’भारती‘, साहित्यगार प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ १०४/मूल्य १५० रुपये मात्र।
स ’’एक चेहरा‘‘, (कविता संग्रह) राजेश प्रभाकर नीला प्रकाशन, नारनौल (हरियाणा) पृष्ठ ११२/मूल्य २०० रुपये मात्र।
Source : रत्नकुमार सांभरिया

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