जटिल मनोविज्ञान है मसले का मर्म
महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों के मनोविज्ञान को सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्ति विशेष स्तरों पर समझा जा सकता है। तेजी से बढ़ रहा आधुनिकीकरण, वैश्वीकरण, पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण हमारे समाज पर असर डाल रहा है। तकनीकी विकास इसमें आग में घी का काम कर रहा है। समाज में यह बदलाव उस तबके को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है जो नाजुक मोड़ या नाजुक स्थिति में होते हैं। वहीं मानसिक रूप से मजबूत और अपेक्षाकृत ठीक ठाक माहौल वाले लोगों पर इसका असर नहीं पड़ पाता है, जबकि नाजुक लोगों के स्वभाव में यह असर परिलक्षित होने लगता है। जिसकी परिणति कभी कभी भयावह होती है। मानव समाज ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। कुछ हद तक मानव समाज हमेशा से हिंसक भी रहा है, हिंसक घटनाओं को देखने, सुनने के प्रति वह हमेशा लालायित रहा है। आज इस प्रवृत्तिमें गुणात्मक वृद्धि देखी जा सकती है। पारिवारिक स्तर पर जो सरलता, जो समर्थन लोगों को पहले प्राप्त था, वह अब नहीं है। लिहाजा लोगों में इस स्तर पर संवाद या अभिव्यक्ति की कमी महसूस हो रही है। इसका नकारात्मक परिणाम उसके व्यक्तित्व पर पड़ रहा है।
व्यक्ति विशेष स्तर पर बॉयोलाजिकल और साइकोलॉजिकल दोनों कारक असर डाल रहे हैं। आनुवंशिक कारण से कुछ लोगों में हिंसक प्रवृत्ति जेनेटिक है। कुछ लोग जो बचपन से तिरस्कृत रहे हैं। यह कमी बड़े होने तक उन्हें सालती रहती है। यह उनके स्वभाव पर विपरीत असर डालती है।
महिलाओं के खिलाफ हिंसा के लिए सख्त कानून बहुत अच्छी बात है, लेकिन उसे लागू करने की प्रणाली और लोगों के बीच जागरुकता के पहलू पर भी विचार किए जाने की जरूरत है। पश्चिमी संस्कृति में स्वायत्ताता प्रधान समाज है जबकि हमारे यहां यानी पूर्व में सामूहिक विकास को श्रेष्ठ माना जाता रहा है। वहां व्यक्ति विशेष अपना और सिर्फ अपने से मतलब रखता है यानी उसका हित और जरूरतें पूरी होती रहे जबकि पूर्वी मूल्यों में सामूहिक हित को सर्वोपरि स्थान प्राप्त था। अब जबकि पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण तेजी से जारी है तो यहां भी स्वायत्ताता चाहने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन उन्हें खासकर किशोरों को कैसे समझाया जाए कि उनकी स्वायत्ताता वहीं तक सीमित है जहां से दूसरे की शुरू होती है।
-प्रो निमेष जी देसाई से अरविंद चतुर्वेदी से बातचीत पर आधारित
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