ये चुनाव कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं. हालांकि भारतीय राजनीति की प्रकृति को देखते हुए इसका पूर्वानुमान लगाना जोखिम भरा है कि अगले कुछ दिनों में कौन-सी घटना लोगों के मनोविज्ञान को प्रभावित करेगी और उसके प्रभाव में राजनीति की दिशा क्या होगी, लेकिन अभी माना जा सकता है कि ये चुनाव 2014 के लोकसभा चुनाव के पूर्व संकेतक होंगे. किंतु इसके अलावा कुछ ऐसे पहलू हैं जो इन चुनावों को अन्य चुनावों से विशिष्ट बना रहे हैं.
अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव के प्रचंड अभियान के बाद यह पहला चुनाव है. इस प्रकार भ्रष्टाचार एवं व्यवस्था परिवर्तन पर केंद्रित गैर राजनीतिक आंदोलन के बाद भारत के इतिहास में पहली बार चुनाव हो रहा है. 1974-77 तक का आंदोलन जिसे जयप्रकाश नारायण ने नेतृत्व दिया, पहले गैर राजनीतिक था, लेकिन बाद में कांग्रेस विरोधी दलों के शामिल हो जाने के बाद इसका चरित्र काफी हद तक राजनीतिक हो गया. दूसरे, भ्रष्टाचार के विरुद्ध भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की जन चेतना यात्रा के बाद का भी यह पहला चुनाव है. कांग्रेस के भविष्य राहुल गांधी द्वारा उत्तर प्रदेश कांग्रेस को पिछले 3-4 सालों से रुपांतरित करने की कोशिशों और दावों के बाद का भी यह पहला चुनाव है.
इन तीन पहलुओं को ध्यान में रखें तो पांच राज्यों के चुनावों का विशिष्ट महत्व अपने-आप स्पष्ट हो जाएगा. भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों से देश में चुनाव प्रभावित होने का इतिहास भी है. 1989 के आम चुनाव के पूर्व वीपी सिंह के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी राजनीतिक अभियान चला और ज्यादातर विपक्षी पार्टियां उसके साथ गईं. इसका देशव्यापी असर हुआ और परिणाम सबके सामने था. इस पृष्ठभूमि के आलोक में कुछ लोग यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि उसी प्रकार के राजनीतिक परिवर्तन की शुरुआत 2012 के इन पांच राज्यों के चुनावों से हो सकती है. अन्ना एवं उनके साथी घोषणा कर चुके हैं कि वे मतदाताओं के बीच जाकर केन्द्र सरकार के विरुद्ध यानी कांग्रेस के विरुद्ध अपील करेंगे. रामदेव भी ऐसा ही कह चुके हैं. इन सबका असर चुनाव परिणामों पर पड़ना ही है. चुनाव परिणामों की ठोस भविष्यवाणी न उचित है और न जोखिमरहित, लेकिन सभी संभावनाओं को आधार बनाकर हम भावी परिदृश्य का एक आकलन तो कर ही सकते हैं.
भ्रष्टाचार के इर्द-गिर्द विचार करें तो पंजाब में अकाली दल पर तो यूपी में बसपा पर भी भ्रष्टाचार का आरोप है. उत्तराखंड में भाजपा पर हालांकि कांग्रेस आरोप लगा रही है, लेकिन वह उतने संगीन नहीं हैं, जितने केन्द्र में कांग्रेस पर. गोवा में तो कांग्रेस-राकांपा सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं ही. इसमें मतदाताओं का मनोविज्ञान क्या हो सकता है? जरा सोचिए, यूपी में कांग्रेस और मायावती एक-दूसरे पर भ्रष्ट होने का आरोप लगा रहे हैं तो मतदाता क्या करें? पंजाब में कांग्रेस एवं अकाली एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं. किसे दोषी माना जाए और किसे निष्कलुष, इस पर मंथन करें तो निष्कर्ष क्या आएगा? तो राजनीतिक दलों के चरित्र के कारण मतदाताओं की उलझन बढ़ी हुई है. ऐसे में चुनाव परिणाम कुछ भी हो सकता है.
एक संभावना है कि कांग्रेस पंजाब में भाजपा-अकाली दल एवं उत्तराखंड में भाजपा के हाथों से शासन लेती है, मणिपुर एवं गोवा में वापसी करती है तथा यूपी में प्रदर्शन सुधारते हुए सरकार के लिए बनने वाले गठजोड़ में एक प्रमुख खिलाड़ी बनती है तो जाहिर है, इससे उसका आत्मविास बढ़ेगा. तब बाबा रामदेव और अन्ना के आंदोलन के कारण अंदर से सहमी और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर विपक्षी हमले से परेशान कांग्रेस आक्रामक होकर निकलेगी और कहेगी कि जनता ने विरोधियों के आरोपों का नकार दिया. वह अपने विरुद्ध चलने वाले आंदोलनों को लेकर ज्यादा आक्रामक एवं सख्त हो सकती है. उसकी स्थिति में सुधार से केन्द्रीय राजनीति के अंकगणित की दृष्टि से बहुत अंतर नहीं आनेवाला, पर अच्छा प्रदर्शन आत्मविास बढ़ाने, आंदोलनों की परवाह न करने के साथ राहुल के हाथों नेतृत्व थमाने के लिए कांग्रेस के रणनीतिकारों के लिए उपयुक्त अवसर होगा.
दूसरी संभावना यह है कि अगर पंजाब में भाजपा-अकाली गठबंधन को एवं उत्तराखंड में भाजपा को दोबारा जनादेश मिलता है, यूपी में बसपा पुन: शक्तिशाली होकर उभरती है, भाजपा अपनी स्थिति सुधारती है और गोवा से कांग्रेस को बाहर करती है तो वैसी स्थिति में कांग्रेस के लिए संभलना कठिन होगा. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनकारी कांग्रेस पर हमला तेज करेंगे एवं आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर भाजपा का आत्मविास बढ़ेगा. यानी वह 2014 के लिए ज्यादा आशान्वित होगी. किंतु पंजाब में पिछले 40 वर्षों में किसी सरकार के चुनाव जीतने का इतिहास नहीं है, उत्तराखंड में भाजपा अंदर से लड़खड़ाई हुई है, यूपी में भी 2007 एवं 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद उसने अपनी स्थिति सुधारी हो, इसके कोई प्रमाण नहीं. गोवा में उसके लिए संभावना हो सकती है, पर राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से दो सांसदों वाले गोवा का विशेष महत्व नहीं.
1989 के आम चुनाव में भ्रष्टाचार का एकमात्र प्रतीक कांग्रेस बनी थी. इस बार राज्यों के मतदाताओं के सामने केन्द्र एवं राज्य दोनों सरकारों पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं. शेष दलों से भाजपा अभी कम भ्रष्ट है, लेकिन भ्रष्टाचार एवं कालाधन के मामले पर चले आंदोलनों को शासन के विरुद्ध राजनीतिक तथा अपने पक्ष में समर्थन के लिए मोड़ देने की आवश्यकता होती है. क्या भाजपा ने रामदेव और अन्ना के अभियानों तथा जन चेतना यात्रा से जो वातावरण बना उसके राजनीतिक रूपांतरण की ऐसी रणनीति बनाई है जिससे सत्ता विरोधी रुझान का चुनावी लाभ उसे मिल सके? उसके पास यूपी में दोनों सरकारों के सत्ता विरोधी रुझानों का राजनीतिक लाभ लेने का मैदान है, पर मतदाताओं को उसमें सक्षम विकल्प नजर आए तभी तो वे मत देंगे.
इन सबको एक साथ मिलाइए और निष्कर्ष निकालिए. अगर भाजपा का प्रदर्शन बेहतर हुआ और कांग्रेस का कमजोर तो सीधा निष्कर्ष निकाला जाएगा कि भ्रष्टाचार, कालाधन एवं महंगाई के विरोध में हुए आंदोलन का असर हुआ है, लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि भ्रष्टाचार, कालाधन या महंगाई मुद्दा नहीं हैं. वैसे भी विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय मुद्दे ज्यादा प्रभावी होते हैं. दरअसल, भ्रष्टाचार सरीखे मुद््दों पर चुनाव को केन्द्रित करने के लिए जितना सघन राजनीतिक अभियान चलाया जाना चाहिए, वह दिखाई नहीं पड़ता. सियासी दलों के लिए सब कुछ टोकन हो गया है. विरोध की केवल औपचारिकता है. कुल मिलाकर चुनाव में अगर विरोधी अभियानों का असर होगा तो सरकार के कुछ कदमों का प्रभाव भी पड़ेगा.